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कोरोना काल में ईद का महत्त्व - Reshma Begum

importance of eid

कोरोना काल में ईद का महत्त्व


इस्लाम मजहब के सभी त्यौहारों में ईद-उल-फितर को आग्रणी माना जाता है। ईद-उल-फितर मज़हबी खुशी का त्यौहार है। रमज़ान माह की समाप्ति के बाद चाँद को देखकर इस त्यौहार को मनाने की परंपरा है, इसलिए दुनिया के अलग-अलग देशों में ईद की तारीख अलग पड़ती है। इस्लाम के इस पर्व को 'मीठी ईद' के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस पर्व में खास तरह के मीठे पकवान बनाए जाते हैं। सेवइयां और शीरखुरमे की मिठास में लोग अपने दिल में छुपी कड़वाहट को भुला देते हैं। आइए जानते हैं इस त्यौहार से जुड़ी प्रमुख परंपराएं, महत्त्व और इतिहास।

इस्लामी परंपरा के अनुसार रमज़ान महीने के ठीक बाद ईद-उल-फितर और हज के महीने के बाद ईद-उल-जुहा दो महत्वपूर्ण त्यौहार मनाए जाते हैं। ईद-उल-फितर का शाब्दिक अर्थ है 'उपवास तोड़ने का उत्सव'। रमजान इस्लामिक कैलेंडर का नौवां महीना एवं सबसे पाक महीना होता है, ठीक उसी तरह ईद-उल-फितर इस्लामिक कैलेंडर के दसवें महीने 'शव्वाल' के पहले दिन मनाया जाता है, मतलब जो रमज़ान महीने का अंत दर्शाता है। इस्लामी कैलेंडर के सभी महीनों की तरह यह भी चाँद के दिखने पर ही शुरू होता है। रमज़ान की समाप्ति, ईद-उल-फितर की खुशी के साथ ईश्वर को शुक्रिया अदा करने से होती है। उपवास का उद्देश्य केवल खाना-पीना छोड़ना नहीं होता है, बल्कि रोज़ा प्रतीक है स्वयं को हर बुराई से जीवन भर दूर रखने का। रमज़ान के दौरान दिन में खाने और पीने से दूर रहने से रोज़ेदार को याद रहता है कि उसे जिम्मेदारी की भावना के साथ जीवन जीना है इसलिए इसे गरीबों को फितर (दान) बांटने के त्यौहार के रूप में भी मनाया जाता है। तभी ईद-उल-फितर गरीबों के लिए भाईचारे की भावना और सहानुभूति प्रकट करने का भी प्रतीक है।

मूल रूप से ईद विश्व बंधुत्व को बढ़ावा देने का त्यौहार है इसलिए हज़रत मोहम्मद ने इसे सभी धर्मों के लोगों के साथ मिलकर मनाने और सबके लिए खुदा से सुख-शांति और बरकत की दुआएं मांगने की तालीम दी है।

ईद-उल-फित्र में 'फित्र' एक अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है 'फित्र' अदा करना। फित्र वह रकम होती है जो खाते-पीते, साधन संपन्न घरानों के लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को देते हैं। इसे ईद की नमाज़ पढ़ने से पहले अदा करना होता है, इस तरह अमीर के साथ गरीब की भी साधन संपन्न के साथ ईद मन जाती है। फितरे की रकम गरीबों, विधवाओं व यतीमों और सभी ज़रूरतमंदों को दी जाती है। फितरा हर मुसलमान पर वाजिब है और अगर इसे अदा नहीं किया गया तो ईद नहीं मनाई जा सकती। कहा जाता है कि ईद का दिन मुसलमानों के लिए ईनाम का दिन होता है। इस दिन को बड़ी ही आसूदगी और आफीयत के साथ गुज़ारना चाहिए और ज़्यादा से ज़्यादा अल्लाह की इबादत कर के दान करना चाहिए। 

"ईद का चाँद" साल में एक ही बार आता है। यूं तो चाँद साधारण तौर पर बाकी दिनों में भी निकलता है लेकिन ईद के चाँद में आखिर ऐसी क्या खासियत है कि बिना चाँद देखे हम ईद नहीं मनाते। ईद और चाँद का खास रिश्ता है। ईद-उल-फितर इस्लामिक कैलेंडर (हिजरी कैलेंडर) के दसवें महीने शव्वाल यानी 'शव्वाल उल मुकर्रम' की 1 तारीख को मनाई जाती है। इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत इस्लाम के प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना से मानी जाती है। वह घटना है हज़रत मोहम्मद द्वारा 1441 साल पहले हुई थी जिसमें उन्होंने मक्का शहर से मदीना की ओर हिज़रत करने यानी जब हजरत मोहम्मद ने मक्का छोड़कर मदीना के लिए कूच किया था।


हिजरी संवत जिस इस्लामी कैलेंडर का हिस्सा है वह चाँद पर आधारित कैलेंडर है। इस कैलेंडर में हर महीना नया चाँद देखकर ही शुरू होता है। इस्लामी कैलेंडर में साल के 12 महीने होते हैं और प्रत्येक महीने में 29 या 30 दिन। एक साल 354.36 दिन का होता है और वहीं दूसरी तरफ ईसवी कैलेंडर सूरज के हिसाब से तय होता है और इसमें 30 या 31 दिन होते हैं और साल में 365 दिन या 366 दिन। यानी दोनों कैलेंडरों के बीच में 10 से 11 दिनों का प्रत्येक वर्ष फर्क आ जाता है जिसके कारण हर वर्ष इस्लामी त्यौहारों की तारीख बदलती रहती है। 

चाँद देखने के साथ ही इस्लामी कैलेंडर के हर नए महीने की शुरुआत होती है। इसका पहला महीना 'मुहर्रम' होता है नौवा सबसे पाक महीना 'रमज़ान' और दसवें महीने 'शव्वाल' की शुरुआत ईद के चाँद के दीदार से होती है। इस्लामी कैलेंडर की खास बात यह है कि जहां ईसवी कैलेंडर में नई तारीख की शुरुआत रात 12:00 बजे से होती है वहीं हिजरी साल यानी इस्लामी कैलेंडर में नई तारीख की शुरुआत शाम सूरज डूबने के बाद से होती है। अरब दुनिया में इस्लामी कैलेंडर का महत्व आम कामकाज के लिए भी होता है। इस दुनिया में जहाँ-जहाँ भी मुसलमान है, वह किसी न किसी रूप में इस्लामी कैलेंडर से बंधे हुए हैं और जरूर मान कर चलते हैं क्योंकि उनके त्यौहार इसी कैलेंडर के आधार पर मनाए जाते हैं। इसी तर्ज पर 'शव्वाल' महीना भी नया चाँद देखकर ही शुरू होता है जो कि रमजान के अंत और ईद को दावत देता है। और उस चाँद को ही ईद का चाँद कहा जाता है जो कि इस्लामी कैलेंडर में काफी लंबे समय के इंतजार के बाद यानी 9 महीने बाद आता है। शव्वाल का चाँद नजर ना आने पर माना जाता है कि रमज़ान का महीना मुकम्मल होने में कमी है इसी वजह से ईद अगले दिन या जब भी चांद नजर आए तब मनाई जाती है।

इस्लाम के तारीख के मुताबिक ईद-उल-फितर की शुरुआत सन् 624 ईसवी में जंग-ए-बद्र के बाद हुई थी दरअसल इस जंग में मुसलमानों की फतेह हुई थी जिसका नेतृत्व खुद पैगंबर मोहम्मद साहब ने किया था। युद्ध के बाद लोगों ने ईद मना कर अपनी खुशी ज़ाहिर की थी। यह कुछ-कुछ हिंदुओं के दीपावली की तरह है,जब भगवान राम के लंका विजय के बाद पहली बार दीपोत्सव की शुरुआत हुई थी जो बाद में दीपावली के रूप में मनाया जाने लगा।

ईद-उल-फितर का सामाजिक अर्थ भी है। इस दिन मुस्लिम अपने घरों से बाहर निकलते हैं, एक साथ नमाज़ पढ़ते हैं, अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों से मिलते हैं और अन्य लोगों को शुभकामनाएँ देते हैं। दरअसल इस त्यौहार का असल उद्देश्य सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना है। इस त्यौहार की हर गतिविधि सामाजिक गतिविधि में बदल जाती है। ईद भाईचारे व आपसी मेल का त्योहार है। ईद के दिन लोग चाहे किसी भी धर्म के हो एक दूसरे के दिल में प्यार बढ़ाने और नफरत को मिटाने के लिए एक दूसरे से गले मिलते हैं।

ईद के दिन प्रातः काल बच्चे, युवक, बूढ़े सभी स्वच्छ कपड़ों में एक निश्चित समय पर ईदगाह में एकत्रित होते हैं। सभी लोग वहां पंक्तिबद्ध होकर नमाज़ अदा करते हैं। हजारों की संख्या में एकत्रित हुए लोगों के हाथ जब दुआ के लिए उठते हैं तो संपूर्ण दृश्य देखकर मन प्रफुल्लित हो उठता है। तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे सभी आपस में भाई-भाई हैं जिनमें परस्पर द्वेष व वैमनस्य का कोई स्थान नहीं है। नमाज़ अदा करने के उपरांत सभी लोग एक दूसरे को गले लगाते हैं तथा ईद की मुबारकबाद देते हैं। इसके साथ ही दावतों का सिलसिला शुरू हो जाता है। लोग नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद उठाते हैं तथा अपने निकट संबंधों में इसका आदान-प्रदान भी करते हैं।

हालांकि इस बार कोरोनावायरस संकट के चलते सब कुछ बदला बदला सा है। रमज़ान के दौरान रोज़ेदार मस्जिदों से दूर रहकर ही घर पर इबादत कर रहे हैं। अमूमन ईद को लेकर पूरे रमज़ान बाज़ार में जिस तरीके से रौनक हर साल देखते बनती थी, इस बार चीजें थोड़ी बदली-बदली सी है। लेकिन इस बीच यह याद रखना ज़रूरी है कि कोरोना हमारे बीच हमेशा तो शायद नहीं रहेगा लेकिन ईद हमेशा आती रहेगी। पूरी दुनिया अभी वायरस से ग्रस्त हैं और ईद की खुशी इसी में है कि हम गले ना मिले और हाथ ना मिलाएँ। ईद पर गले मिलने का मतलब होता है कि अगर आपकी किसी से दुश्मनी या मनमुटाव है तो उनको भुला कर गले मिले जिससे कि वह मनमुटाव खत्म हो और फिर से दिल मिल सके लेकिन इस वक्त किसी से दुश्मनी निभानी है तो गले मिले अगर मोहब्बत निभानी है तो दूर रहना चाहिए। अगर आप इस वक्त दूर से ही सलाम करते हैं या मुबारकबाद देते हैं तो हम खुद भी बचते हैं दूसरों को बचाते हैं। सावधानी और सतर्कता बनाए रखिए। ईद जिंदा करने का नाम है, ईद खुशियों का नाम है और हम इस साल यही ईदी दे सकते हैं।

RESHMA BEGUM

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