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सम्मिलित दुनिया की ओर.... Riya Yadav

hindi article on gender inequality
Image Source : Kathmandu Post

वर्ष 2016 में आई फिल्म 'अलीगढ़' में एक दृश्य है जिसमें मनोज बाजपेई अपने चेहरे पर शून्यता का भाव लिए कहते हैं - 'दिस इज ब्यूटीफुल वर्ल्ड'। सच में यह दुनिया बहुत खूबसूरत और सतरंगी है लेकिन कुछ लोगों को हाशिए पर धकेल कर, उनके अधिकारों का हनन कर इसे बदरंग बनाने का काम किया गया है। दरअसल, मैं बात कर रही हूं लैंगिक समानता और एलजीबीटीक्यू के अधिकारों के बारे में। 

लैंगिक असमानता हमारे समाज में आज भी विद्यमान है। सेक्स जैविकीय या शारीरिक हैं जबकि जेंडर सामाजिक, सांस्कृतिक है। पुरुषों और महिलाओं के बीच जैविक अंतरों के आधार पर ही महिलाओं की अधीनता को बुनियादी रूप से सही माना जाता रहा है। महिलाओं के दमन को प्रकृति प्रदत्त मानकर इसे वैधता दी जाती रही है। 

जेंडर सामाजिक व सांस्कृतिक विशेषताएं हैं, प्राकृतिक नहीं।

लैंगिक असमानता एक पितृसत्तात्मक सोच है। प्राचीन काल से विभिन्न लिंगों के लिए कुछ रूढ़ियां और भूमिकाएं निर्धारित की गई है ,जैसे पुरुष घर में पैसा लाने के लिए है और महिलाएं घर के काम करने के लिए व परिवार की देखभाल करने के लिए है, आदि। कई महिलाएं अपने कार्यस्थल पर वरिष्ठ द्वारा यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं। महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा, बलात्कार, ऑनर किलिंग के मामले तो आए दिन सामने आते रहते हैं। महिलाओं के खिलाफ हिंसा आमतौर पर लिंग आधारित होती है जिसका अर्थ है कि यह केवल महिलाओं के खिलाफ प्रतिबद्ध है। 

 एक नजरिए से देखा जाए तो पुरुषों को भी इस लैंगिक असमानता, एक पितृसत्तात्मक सोच से नुकसान पहुंचता है। जब भी वे सामान्य से अलग कैरियर चुनते हैं तो लोग उनकी मर्दानगी पर सवाल उठाते हैं। जब एक पुरुष सार्वजनिक रूप से रो कर अपना दुख व्यक्त करता है तो यह व्यंग कर उसकी बेज्जती की जाती है कि 'औरतों जैसे क्या रो रहे हो?' वे परिवार के पालक और रक्षक की भूमिका को छोड़ नहीं सकते।

लिंग समानता आमतौर पर पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए सभी चरणों में समानता देना है चाहे वो उनके घर में हो या शैक्षणिक स्थानों पर या कार्य स्थलों पर। लैैंगिक  समानता  का उद्देश्य पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान अवसर और समान अधिकार सुनिश्चित करना है। लैंगिक समानता राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समानता की गारंटी देता है।लैंगिक समानता का मतलब यह भी है कि महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस करें और उन्हें हिंसा का डर ना सताए।

समाज में लैंगिक समानता तब प्राप्त होगी जब पुरुषों व महिलाओं, लड़कों व लड़कियों को दो व्यक्तियों की तरह समान रूप से व्यवहार किया जाएगा, ना कि दो लिंगों के तौर पर। समानता का अभ्यास घरों, स्कूलों, कार्यालयों आदि में किया जाना चाहिए।

परिवार जो समाज की बुनियादी संस्था है। शायद सबसे अधिक पितृसत्तात्मक संस्था है। पुरुष इस संस्था का मुखिया है। आने वाली पीढ़ियों को पितृसत्तात्मक मूल्य देने और सिखाने का काम भी परिवार ही करता है। समाज में बराबरी लाने के लिए सबसे पहले परिवारों में बराबरी लाने की जरूरत है। बराबर का अर्थ होना होगा बराबर के अधिकार ,बराबर की जिम्मेदारियां।

आज भी समाज में ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक सभी स्तरों पर समाज के सभी राजनीतिक संस्थाओं में पुरुषों का बोलबाला है। राजनीतिक दलों व संगठनों में मुट्ठी भर औरतें हैं। औरतें प्रधानमंत्रियों की गद्दी तक पहुंची है, कभी-कभी उन्होंने भी ज्यादा या थोड़ी मात्रा में ताकत और फायदे पाए हैं, परंतु उस सब से यह सच्चाई नहीं बदलती की यह व्यवस्था पुरुष प्रभुत्व की है। आज भी सामाजिक ,धार्मिक कानूनी और सांस्कृतिक रिवाज लगभग सभी क्षेत्रों में मर्दों को ज्यादा अहमियत और ज्यादा अधिकार देते हैं। 

समाज में समावेशीकरण लाने हेतु जरूरत है इन कानूनों को, परंपराओं को बदलने की। सम्मिलित दुनिया की ओर बढ़ने के लिए, इस दुनिया को समावेशी बनाने के लिए यह जरूरी है कि जन्म से ही लड़के और लड़कियों का जो समाजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है उसे बंद किया जाए। 

लैंगिक समानता ना केवल महिलाओं के लिए फायदा है बल्कि यह समग्र रूप से मानवता को लाभ पहुंचाता है। लैंगिक समानता अनम्य लिंग भूमिकाओं को खत्म करने में मदद कर सकती है जो हम सभी को प्रभावित करती हैं।

  2001 में नीदरलैंड पहला ऐसा देश बना जिसने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी।  इसके पश्चात अन्य कई देशों के साथ-साथ भारत में भी समलैंगिक अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ाने की कवायद परवान चढ़ने लगी थी। आखिरकार, 6 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए धारा 377 को निरस्त कर समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया। धारा 377 को निरस्त करने के आंदोलन का नेतृत्व एक एनजीओ, नाज फाउंडेशन ने किया था। 2014 के एक ऐतिहासिक फैसले में ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के तौर पर मान्यता दी गई। इसके साथ ही उन्हें ओबीसी के तहत नौकरियों में आरक्षण देने का भी प्रावधान किया गया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, ऐसे समुदाय के लोगों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ा गया है और लोगों के बीच भी एलजीबीटी समुदाय के प्रति उनकी सोच ,उनके विचार बदल रहे हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता तो मिल गई है परंतु इसके अलावा कई कानूनी अड़चनें भी हैं।अभी भी इस समुदाय को सामाजिक मान्यता पाने के लिए बहुत दूर तक चलना होगा।अभी भी बहुत कुछ है, जो भारत में एलजीबीटी व्यक्तियों के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए किया जाना बाकी है।

हम सभी को मिलकर एक बेहतर समाज की संरचना करनी होगी जो विविधता को महत्व देता हो और लोगों की विशिष्टता को स्वीकारता हो। भविष्य में, कोई व्यक्ति खुद को इसके लिए दोषी ना महसूस करें कि वे कौन है ? माता-पिताओं की मौलिक जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चे की पहचान को स्वीकार करें। परिवार और समाज को समलैंगिकों को स्वीकार करना होगा। समाज के लोगों में यह अभाव होना चाहिए कि ' कोई समलैंगिक नहीं है, ठीक है; कोई समलैंगिक है, यह भी ठीक है।'

 प्रकृति में हर ओर विविधता है। समानता, बराबर अधिकारों और बराबर अवसरों के लिए एक जैसा होना तो जरूरी नहीं।शायद, हम भविष्य में कम से कम एक ऐसे समाज का सपना देख सकते हैं जो अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार नहीं करता है।  

     जमाने को चलो बदलते हैं, एक नए दौर की ओर चलते हैं।

जहां ना कोई लैंगिक भेदभाव हो, जहां लड़कों का पसंदीदा रंग गुलाबी भी हो सकता हो, लड़कियां भी बहादुरी दिखाएं तो उसे सिर्फ लड़कों का गुड ना समझा जाता हो, लड़के अगर रोए तो उन्हें कमजोर ना समझा जाता हो, घर का काम सिर्फ महिलाओं का काम नहीं पुरुषों का भी काम हो, जहां पुरुष और स्त्री की एक साझेदारी हो, बराबर के अधिकार बराबर की जिम्मेदारियां हो, समलैंगिक लोगों को भी समान अधिकार व समान अवसर प्राप्त हो, लोग उनको अपमानित ना करें और फिर प्यार तो हमेशा से ही सतरंगी था फिर दो समान लिंग के व्यक्तियों के बीच प्यार गलत कैसे ? चलो, क्यूं ना परंपराओं के आवरण में छुपे हर भेदभाव को नकारते हैं। आखिर कब तक पुरानी परंपराओं को ढोया जा सकता है, कब तक बचाया जा सकता है , खास तौर से तब जब वह मदद करने की बजाय समस्याएं पैदा कर रही हो। चलो, क्यूं ना अब इस समाज को अधिक समावेशी बनाते हैं , एक ऐसे समाज का निर्माण करते हैं जो बराबरी, न्याय संगत और गरिमा पर आधारित हो।


Riya Yadav
Student
Delhi University

9 टिप्‍पणियां:

  1. वाह रिया क्या ख़ूब शुरूआत की है,औऱ एक अत्यंत सरल व सुन्दर सुझाव के साथ अपनी बात को खत्म किया।।
    आशा हैं इस दुनियाँ का सपना सच होगा, समाज बदलेगा

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  2. बेहतर प्रयास👍 , सही सोच और सटीक मानसिकता के साथ ।

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  3. "Hum sabhi logo ko ek behtar samaj ki sanrachna krni hogi jo vividhata ko mehatva deta ho aur logo ki vishishtta ko swikarta ho", well said�� and it should be true. We hope that Society will be more accepting, more lovable, and more peaceful in the future.

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