लोग कहते हैं कि वक्त बहुत बदल गया है। देश, समाज और दुनिया प्रगति की राह पर है। बड़ी-बड़ी गगनचुंबी इमारतें, हजारों किलोमीटरों में फैले राजमार्ग, एक शहर से दूसरे शहर पहुंचाते पुल, देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाढ़, सूचना क्रांति का विस्फोट और इंटरनेट का बोलबाला, निश्चित तौर पर ये सब प्रगति के द्योतक तो हैं हीं। अब देखिए! पहले अगर अपने किसी सगे-संबंधि या खुद की शादी का निमंत्रण किसी दूर-दराज के रिश्तेदार को भेजना होता था तो लगभग 15-20 दिन पहले उसे डाकघर जाकर पोस्ट करना पड़ता था। अब तो इधर कार्ड हाथ में आया और उधर आपने अपने प्रियजन को ई-मेल किया या व्हाट्सएप्प पर फोटो खींचकर भेज दिया। कुछ लोग तो जहाजों में बैठकर रोज दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ते की सैर कर लेते हैं तो जनाब मानना तो पड़ेगा कि पहले के मुकाबले बदलाव तो आया है लेकिन उन्नति की ये बयार अपने साथ ज़हरीला डंक भी साथ लेकर आई है। वो है पैसा कमाने की अंधाधुंध हवस। ऐसा नहीं था कि पहले लोग पैसा नहीं कमाते थे या नहीं कमाना चाहते थे, पर पहले आमतौर पर जिसे जितना मिल जाता था वो उसमें संतुष्ट रहता था। ज़रूरतें कम थीं और खर्चा करने के साधन भी अधिक ना थे, तो दो-चार प्रतिशत जनता को छोड़कर ज्यादातर भारतीय कम में ही गुजारा करके खुश रहते थे। आज पहनने को महंगे कपड़े हैं, रहने को आलीशान इमारतें और घूमने के लिए लग्जरी कार, देश-विदेश का फॉस्ट फूड भारतीय थाली को कहीं पीछे छोड़ चुका है। दिखावे और होड़ में हमें अंधा कर दिया है तभी तो युवा कहीं सोशल ट्रेड के नाम पर करोड़ों-अरबों का घोटाला कर रहे हैं और राजनेता तथा उद्योगपति इनकी गिनती तो चालू ही हजारों करोड़ से होती है। आर्थिक उन्नति का ये दौर हमें बिना बताये हमसे आर्दशों, मूल्यों और सिद्धांतों को चुपके से छीने ले रहा है। हमें पता भी नहीं चल रहा कि कब हमारी नस्लें धन पीपासु से धनभक्षक बनती जा रही है। पैसा कमाना कोई गलत बात नहीं है लेकिन उसके लिए इंसानियत को जार-जार कर देना बिल्कुल उचित नहीं है। भावनाओं और संवेदनाओं का भी उतना ही मूल्य है जितना धन का। सुविधाभोगी हमारी ये पीढ़ी सुविधाएं प्राप्त करने के लिए क्या मूल्य चुका रही हैं ये सवाल हम सबकों खुद से पूछना होगा।
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