भारत अहिंसा का पुजारी, कृशि एवं पशुपालन करने वाला, प्रकृति, नदियों, पेड़-पौधों की पूजा करने वाला राष्ट्र है। भारत में जैन समुदाय की जनसंख्या एक प्रतिषत है फिर भी सबसे अधिक टैक्स इनके द्वारा दिया जाता रहा है। राश्ट्र की गौशालाएं इन्ही की बचत से संचालित हो रही हैं। बूचड़ खाने बन्द करवाने के लिये जैन मुनियों ने अनेकों बार अनशन किये, जेल गये।
भारत की न्यायपालिका ने सरकार को मांसाहार करने वालों के लिए वैध बूचड़ खाने खोलने के लिए कहना वास्तव में तुश्टीकरण की भ्रश्ट विलासिता की बाजारू सोंच है। न्यायपालिका को उनकी चिन्ता हो रही है जो चार बीवियां और चालिस बच्चे पैदा करके अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं। कुपोशण से ग्रस्त बच्चे जिन्हे स्वच्छ जल नही मिलता वहीं षराब बन्दी लागू नही हो रही। किसानो द्वारा पैदा की गई फसलों का भंडारण की उपयुक्त व्यवस्था नही है। बेरोजगारी और गरीबी पिछले सत्तर सालों से समस्या बनी हुई है। किसान आलू टमाटर की लागत मूल्य न पाने पर उसे सड़कों पर फेंक रहे हैं। ऐसी स्थिती में न्याय-पालिका लोगों के टैक्स के पैसे से बूचड़खाने खुलवाना चाहती है। तुश्टीकरण से राजनेता हज हाउस खुलवा रहे हैं। कब्रिस्तान बनवा रहे है। मकबरों के रखरखाव पर जुटे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ट्रिपल तलाक को आस्था का प्रश्न मानती है और उसपर अपना पक्ष नही रखती तो गोहत्या बन्दी हिन्दू आस्था के प्रष्न पर क्यों नही रोक लगाती ? जैन समुदाय अहिंसा परमोधर्म मानती है तो मांसाहार के पक्ष में क्यों खड़ी दिखाई देती है? कन्या भ्रूण हत्या को अपराध मानती है तो अण्डे खाने पर क्यों नही रोक लगाती? यदि मांसाहार मानव का अधिकार है तो निठारी हत्याकाण्ड में नरभक्षण पर क्यों मुकदमा चला रही है? हिन्दू धर्म में हर जीव में ईष्वर का अंष है, क्यों भूल जाती है? धर्म के आधार पर देष का बंटवारा मान लेती है तो अल्पसंख्यकों के तुश्टीकरण का प्रयास क्यों करती है? आर्य समाज यज्ञ हवन करता है षाकाहारी है जैन धर्म अहिंसा धर्म को मानता है, बौद्ध धर्म हिंसा को बुरा मानता है। उनकी आस्था का ध्यान हमारी नगरपालिका क्यों नही करती ? विष्व षांति के लिए सभी राश्ट्र एकमत हैं लेकिन हतियारों पर रोक नही लगाती। योग को आज के युग की जरूरत मानती है लेकिन योग के यम-नियमों को नजर अन्दाज करती है। यह दोहरा मापदण्ड यदि बुद्धिजीवी वर्ग थोपता है तो हम इसे कभी स्वीकार नही करेंगे। अभिव्यक्ति की आजादी को कुचला नही जा सकता।
हमारी देष की न्यायपालिका ने अब माना है कि गंगा केवल नदी नही है। वह तो मानव है जबकि हजारों साल से भारतीय जन-मन गंगा को मॉ मानता है, नदियों की पूजा करता है। हमारे देष की न्याापालिका गाय को पषु मानती है लेकिन भारत का जन-मन गाय को माता मानता है उसमे सभी देवी देवताओं का वास मानता है। पीपल को वृक्ष के साथ ही देवता समझता है, हरे वृक्षों को काटना अपनी संतान को काटना मानता है। बूचड़खाने मानवता के माथे का कलंक है फिर भी हमारी न्यायपालिका तृश्टिकरण के कारण बूचड़खानों का निर्माण करने का आदेष हमारी द्वारा चुनी सरकार को देती है जो सर्वथा उचित नही है। न्यापालिका को अपना आदेष वापिस लेना चाहिए और सर्वधर्म समभाव का पालन करना चाहिए। गंगा, गीता, गाय की सौगन्ध हम सत्य बोलने के लिए खाते हैं, धर्म पालन के रूप में लेते हैं। क्या न्यायपालिका सत्य और धर्म की राह से हटकर अधर्म और असत्य की राह पर चल निकली है। बेलगाम मानवाधिकार मानव को दानव बना रहा है।
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