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मेंढकों की बैठक | Hindi Article | Lekhak ki Lekhni

Meetings-of-Frogs Hindi Article



भारतीय मेंढकों ने आपातकालीन बैठक का आयोजन किया है जिसमें उनको भारतीय व्यापारिक नीतियों से हो रही मेंढक संहार की विस्तृत चर्चा करनी है। बैठक शुरु होने से पहले पिछले वर्ष वर्षा न होने से दैवीय आपदा से पीडि़त मेंढकों को सान्तवना दी गई कि इस वर्ष भारत में अच्छी वर्षा हुई है। विदेशों में तो कृत्रिम वर्षा करवा ली जाती है लेकिन यह शान्ति तथा अहिंसा का पुजारी भारत तो दुनिया में जगत गुरु का पुराना शील्ड देखकर खुश हो लेता है। 

इसके बाद एक युवा मेंढक ने रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें आंकडे दिए गये थे कि भारत में 1000 लाख मेंढक हर साल मारे जाते हैं। सन् 1959 से यह कार्य उस वर्ष 93.5 टन मेंढक की टांगों को यूरोप और अमेरिका को निर्यात करके शुरु किया गया। सन् 1981 में 4368 टन मेंढक की टांगे निर्यात हुई जिसमें 1700 टन नीदर लैंड ने खरीदी। इसके अतिरिक्त कनाडा, साउदी अरब, जापान, संयुक्त अरब अमिरात को भी भेजी गई जिनसे भारत को करोड़ों रुपयों की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई। अब सन् 2012 में यह संख्या कहां तक पहुंची है इसके आंकड़े प्राप्त करना है। 

इस रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए एक वृद्ध मेंढक ने भीगी आंखों से कहा कि जब प्रयोगशाला में हमें चीरा फाड़ा जाता, तब हमें गर्व होता था कि हम अपनी जान देकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के द्वारा मानव मात्र की भलाई के लिए अपने प्राणों का दान कर रहे है लेकिन आज भारत विदेशी कर्जे में इतना डूब चुका है कि उसे विदेशों को ब्याज चुकाने के लिए भी फिर कर्जा लेना पड़ता है। यदि हमारे प्राणों को देने से उसे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है तो हमें यह मृत्यु भी स्वीकार्य है। यह देश महावीर, बुद्ध और नानक, दयानन्द का देश है, जहां सत्य और अहिंसा के लिये करोड़ों लोग सादा जीवन जी रहे है। आने वाले समय में कोई भी इतिहासकार इस देश को अधर्मी होने का आरोप न लगाये। यह देश अधार्मिक नहीं है, यह देश स्वार्थी नहीं है कि केवल अपना पेट भरने के लिए जीव हत्या करवा रहा है। इसलिए हम सर्व सम्मति से यह प्रस्ताव पास करते हैं कि यह मेंढक का संहार का कार्य हमारे लिए गर्व तथा आत्म संतुष्टि का विषय है कि हमारा जीवन मातृभूमि के काम आ रहा है। दधिचि का त्याग हमारा आदर्श है लेकिन हम सरकार से अनुरोध करते है कि जिस प्रकार किशोर कुमार और मुकेश के गाने सुनकर उनको बिना देखे हमे ज्ञान हो जाता है कि यह किसके द्वारा गाया गया है, मछली के बारे में सोचते है तो हमें जल का ध्यान आ जाता है। इन्द्रधनुष के बारे में सोचते ही आकाश भी दिखाई देता है। उसी तरह नैतिकता और सदाचार के बारे में सोचते ही हमें गीता का ध्यान आ जाता है। शाकाहार हमें सात्विक लगता है, मांसाहार को हम तामसी मानते है फिर हमें सिगरेट, गुटका, शराब के लिए क्यों लिखना पड़ता है कि यह सेहत के लिए हानिकारक है। यह तो इन चीजों को देखते हमें ज्ञान हो जाता है, लेकिन इसका जितना प्रचार-प्रसार हो रहा है, यह समझ से बाहर है। क्या केवल राजस्व प्राप्ति ही हमारा लक्ष्य बन चुका है, गौ-हत्याएं करके निर्यात से धन कमाना हमारी नियति बन चुकी है, शराब की लायसेंसी दुकानें खुलवाकर हम साधारण जनता से स्वस्थ और जीवन की हानि कर रहे हैं। मेरा विश्वास है कि गौ हत्या बन्दी और शराब बन्दी लागू न होने में भ्रष्ट विलासिता की सोच है।


सब मेंढकों ने फुदक-फुदककर अपनी सहमति जाहिर की।


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लेखक - श्री जगदीश बत्रा लायलपुरी 
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