आज बहुत दिनों बाद बहुत शानदार दिन है । बहुत दिनों पहले किसी ने एक वर्कशॉप में मुझे छोटा सा काम दिया था । उसके पन्द्रह सौ रुपये तय हुऐ थे। किन्तु जिन्होंने काम दिया था उनको स्वयं भी पूरा भुगतान नही हो पाया था। अपने आयोजकों की तरफ से सो उन्होंने उस समय मुझे टाल दिया था । लेकिन आज दिन बेहद रौशनी भरा रहा है । वो मुझे अचानक से दिख गये । मैंने मायूसी से उन्हें अभिवादन किया । उन्होंने मुझे पास बुलाया । में मायूस सा उनके पास जाकर उनसे हेलो किया । उन्होंने आने जेब में हाथ डाला तो मेरी आँखों की पुतलियों में थोड़ी जुम्बिश हुई । जेब से उनका हाथ अपने पर्स के साथ बाहर आया । उन्होंने उसमें से दो पाँच सौ के नोट निकाले और मेरी और बढ़ा दिये । मैंने अज़नबी बनते हुऐ बोला अरे ये ...? उन्होंने हाथ उठाकर बड़े उच्च भाव से ईशारा किया । में इस कृपा को पाकर आज भाव विभोर हो गया हूँ । उन दो नोटों की चमक मेरे आँखों में देखते ही बनती है । उनके जाने के बाद में थोड़ा अपनी चाल में परिवर्तन और अपने आसपास जो देख रहा हूँ उसमे थोड़ा ख़ुशी महसूस कर रहा हूँ । में लंबे लंबे क़दमों से जवाहर कला केंद्र के दालान से से कैफेटेरिया की और बढ़ चला । लेकिन अचानक मुझे होश आया । में अपने सब दोस्तों से मिलता मिलाता वापस चोर क़दमों से बाहर आ गया । में अंदर जाते समय ये तय कर चुका था कि आज एक टोमॅटो ओनियन उत्तपम और एक काफ़ी ढेर सारी अदाओं के साथ पीते हुऐ कुछ अच्छा सोचते हुए खुद को रिलैक्स दूंगा । लेकिन जब अंदर अपने परिचितों और साथियों को देखा तो वो नोट अचानक बहुत छोटे होकर बड़े हो गये । सो दबे पाँव वापस लौट आया । आँखों की चमक और क़दमों के उछाल अचानक समझदार हो उठे । टहलता हुआ बाहर निकलकर चल दिया । किसी दार्शनिक अंदाज में सामने की तरफ़ आरटीओ वाली गली की तरफ और वहीं चुपके से दो कचौरी खाकर अपने उबलते हुऐ क्रोधित उदर को शाँत किया । चाय की चुस्कियों के दौरान सोच रहा हूँ बहुत सारी बातें ।
यहाँ घूमते एक मुद्दत हुई है देखता हूँ कलाकारों के दो वर्ग हैं । एक है जिसमें मेरे जैसे कलाकार जो सीखकर खुद को गढ़कर आगे बढ़ना चाहते हैं । उनकी यह ऐरावत यात्रा अनेको कष्टदायक यातनाओं से गुजरकर भी लक्ष्य पर पहुंचने से पहले टूट जाती है। अनेकों शिद्दतों के बावजूद हारा हुआ मूलभूत आवश्यकताओं की तंगहाली से जूझता हुआ कलाकारों का एक वर्ग अपने द्वारा किये हुऐ रंगशाला के कठोर व्यायाम में जुटकर भी व्योम अर्थात आकाश नही हो पा रहा है । और दूसरी ओर एक और वर्ग है जो अपने लखदख परिधानों में लिपा पुता जैसे ही वहाँ पहुंचता है । आसपास की सारी शोखियों को बटोरकर ज्ञान पेलने बैठ जाता है । दरअसल यह जो दुसरा वर्ग है । जो काम कर रहा है एक लाइन का और दिख और छप रहा है कालमों में और हम जो साला मर मरकर काम कर रहे हैं उसकी दो लाइनों की ताजपोशी के लिये एक अमुक हमारा जिगरी मित्र पत्रकार कुटिल अट्टाहास में उसके प्रकाशन के बाद इतना दबा देता है अपने प्रभाव में की हम साला फिर चाय के चक्कर में तो आ ही जाते हैं । दरअसल यह जो दूसरा वर्ग है सच्चे कलाकारों का इसमें भाई बहुत मजबूर लोग हैं बेचारे कोई बड़े अधिकारी की बीबी हैं , कोई अधिकारी के ठलुआ भाई हैं , कोई स्वयम खुद ही ठिकाने लगे हुए विभाग के ठलुआ अधिकारी हैं , कोई प्रोफ़ेसर साहब है जिनका सेटरडे संडे टाइमपास है ये, कोई कहीं बाहर से आयें हुऐ बड़े विद्वान् हैं , कोई किसी सामर्थ्यवान के पुत्र हैं बहुत सारी विधाओं से लिप्त यह मजबूर वर्ग दरअसल बहुत बड़ी लड़ाई तो यही लड़ रहा है कि अपना समय कैसे बितायें तो चलिये साहब यह रास्ता भी ठीक है । इसपर सभी तरह के समाधान भी हैं और विख्यात सुविख्यात करने के लिये जी हुजूरी में पेश होने वाले दरबारी भी हैं । इन्ही सब के बीच मुट्ठीभर काम के लिये भटकते मेरे जैसे कईयों कई संघर्षरत चरित्र जो इन विराट चित्रों के समक्ष बहुत बौने हैं ।
में हज़ार रुपयों से देखो तो सही मेरा रुबाब साला क्या हो गया है । अपने जिन मेहरबानों के साथ बैठता हूँ । अभी उन्हीं के ख़िलाफ़ सोच रहा हूँ । में भी तो वही हूँ जो उनके चाय और कभी इडली सांभर के ऑफर पर निस्तेज भाव से स्तब्ध हुआ उनकी महान कलाकृति को सराहता हूँ । या उनकी महान कहानी कविता गजल को दुनिया की सबसे बेहतरीन कृति घोषित कर देता हूँ । उनके लिखे हुऐ नाट्य को महानाट्य की उपाधि से विभूषित कर देता हूँ । वो मेरी तवज्जो से खुश होकर फिर अपनी ही धुन में लिखने लगते हैं । मेरी जायज़ भूख के लिये वह महाकाव्य वह महासंगीत जो मेरे मन से लेकर उदर तक मचा देता है हलचल । जिसे में लिखने में अक्सर नाकामयाब रहता हूं कभी सुबह कभी शाम । तो फिर में उनके ख़िलाफ़ अभी यूँही अचानक क्यों हो बैठा था । ये शायद मेरी घटिया हरकत है । वे बहुत क़ाबिल लोग उनके पास अनेकों साधन हैं मौज मस्ती के किन्तु वे कितने सहज भाव से अपने समय को निकालकर रंगमंच के इर्दगिर्द एक अनाथालय चला रहे हैं । और में उसमें शामिल एक बच्चा क्यों इतना गलत सोचता हूँ । यही है मेरी तुच्छ महत्वकांछा जो मुझे अपने आप से इतना गन्दा परिभाषित करवा रही है। में इन बातों को नही सोचूंगा की वो क्या कर रहे हैं । में ये जानता हूँ की उनके कारण ही हम जैसों का वजूद है ।
कल सुबह कमरे का किराया और मेस के हिसाब की जुर्रत करूँगा । हालाँकि ये बड़ा नाकाफ़ी योगदान होगा । लेकिन अब अपने आप से भी कुछ तो कहूँ । ये नही कहना भी ना साला जहर बन जाता है मन में । फिर भी कुछ ओर अच्छा होना चाहिये । इस दूसरे वर्ग के लिये जिसमें हम जैसे लोग आते हैं । वैसे हो ही रहा होगा कुछ अच्छा शायद क्या पता मुझे जानकारी नही हो ।
अपने हालातों से झुँझलाया हुआ एक थियेटर आर्टिस्ट
आपका
चन्द्रशेखर त्रिशूल
09983094830
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