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बच्चे को उच्च शिक्षा दिलाने, पालक थोपने की प्रवृत्ति छोड़ें | Lekhak Ki Lekhni

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आज, स्कूल या कॉलेज के सामने सुबह 10 बजे खड़े हो जाओ। शाम 05 बजे तक आपको एक विद्यार्थी और पालक की भागदौड़ ही दिखेगी! जाहिर है, इस समय प्रवेश ( एडमिशन ) का दौर चल रहा है। लेकिन, हम बात करना चाहते हैं। बच्चे को अच्छी शिक्षा मिले और वह पालक और अपनी संस्कृति से दूर ना जाना पाए। 


महँगी शिक्षा के साथ जब बच्चे को तैयार किया जाता है, तभी पालक उन्हे आम बच्चों से दूर रखने का प्रयास करते चले जाते हैं और कोई यदि पूछे कि, कौन से कक्षा में हैं आपके बच्चे ? तो उनका जवाब आता है, A... मॉडल स्कूल में पढ़ता है। फिर बतलाया जाता है कि, वह क्लास "वन" में है। एक तरह से उस बच्चे का 'वन-गमन' हो जाता है। 



यह कोई कहानी नहीं, हकीकत है! जहाँ अच्छी शिक्षा की चाह रखते हुए, बच्चे का संस्कार बदल जाता है। अब आप पूछेंगे कि, संस्कार विहीन बच्चे कैसे हो गये। जबकि, पालक थोपने की प्रवृत्ति नहीं छोड़ते हैं। अच्छी शिक्षा की चाह में, यहाँ तो नीव के साथ, भवन का स्वरूप ही बदल जाते हैं।


मैं यह नहीं कहता कि बच्चे को अच्छी शिक्षा के अध्ययन हेतु मंहगी स्कूल में दाखिल न कराई जाए? बल्कि, उनके संस्कार बचे रहें यह ध्यान रखने की जरूरत है। 

एक और कारण होता है बच्चे में संस्कार के कमी होने का , जब हम उस पर जरूरत से ज्यादा पढ़ाई का बोझ डालते हैं! 

कुछ वर्षो पहले मैं एक अतिरिक्त ब्लॉक शिक्षा अधिकारी के साथ बैठा था। वह अपने बारे में बहुत सी भावनात्मक बातें बतलाते हुए कहा कि, अब सोलह महिने बाद मैं रिटायर्ड हो जाउंगा, और फिर चैन ही चैन रहेगी। कोई बोझ नहीं होगी।

उन्होंने बतलाया कि, उनका एक ही बेटा है। वह अपनी सहायक शिक्षकीय नौकरी के साथ शुरू सफर से लेकर इस पद तक पहुँचने, खुद भी पढ़ाई करते हुए जितना संघर्ष किया है। अपने बच्चे को इस संघर्ष में नहीं डालना चाहते थे। इसीलिए, उसे अच्छी पढ़ाई करवाया, और आज वह मुंबई में इंजीनयरिंग है। 

जब मैंने उनसे बच्चे को कैसे अच्छी शिक्षा दिलाई, अपना अनुभव बतलाने  को कहा। उन्होंने जो बतलाया, यह सुनकर मैंने जो सुनिश्चित किया कि, मैं अपने बच्चों को या आसपास के माहौल में भी ऐसी शिक्षा देने के लिए लोगों को रोकने का प्रयास करूँगा! इनके द्वारा दी गई शिक्षा, मेरे तर्क से बच्चे को संस्कार विहीन बनाने का ही काम करती है! भले ही वह किसी उच्च पद में ना जाये! चलेगा। 

उस अधिकारी ने बताया कि, वह अपने इकलौते बच्चे को नवोदय विद्यालय की तैयारी कर भर्ती कराया और पढ़ाया। जब वह अपने बच्चे से मिलने के लिए जाता था, उनका बच्चा बोलता था- पापा मैं आप और माँ के साथ ही रहना चाहूँगा और वहीं अच्छी पढ़ाई करूँगा। 

लेकिन, उस अधिकारी के अनुसार जब तक उनके इंजिनियरिंग कॉलेज में एडमिशन नहीं हो गया तब तक उन्होंने उनके पढ़ाई से आजादी नहीं दिलाई। 10 वीं के बाद उनका बच्चा दो साल उनके साथ रहा, उस बीच भी वह अपने बच्चे को 18 घंटे पढा़ई पर ही रखता था। 

अब आप सोचिए कि, उनका बच्चा एक कैद से छूटते ही, दूसरे कैद में कैसे फँस गया। 

मैंने उनके बेटे को देखा तो नहीं, लेकिन जिस तरह से उन्होंने बताया, उनके बेटे का व्यवहार मुझे समझ में आ रहा था। जो, कुछ देर बाद उनके बात पूरी करते ही समझ में आ गया। 

उस अधिकारी ने बताया कि, वह अपने बच्चे को टी.वी. ( टेलीविजन ) तक नहीं देखने देते थे। कि, पढ़ाई में कोई बाधा न आ जाए! और जब उन्होंने आगे की बात बताई तो पूरी बात समझ में आ गई कि, आज भी वह नौजवान जो पहले एक बच्चा था क्या सोचता होगा। 

उस अधिकारी ने बताया कि, जब उनकी नौकरी लगी और पहली तनख्वाह मिली, तो मुंबई से पार्सल में सबसे पहले उनके बेटे ने इनके लिए एक रंगीन टीवी भिजवाई! 

मैने उनसे पूछा कि, वे आये क्यों नहीं? तो उस अधिकारी ने बताया कि, बड़ा काम है ना, अभी समय नहीं मिल रहा होगा, इसलिए नहीं आया! 

इस पूरे चर्चा के दौरान उस अधिकारी के माथे पर कहीं कोई सिकन तक नहीं थी, बल्कि वह प्रसन्न थे! कि, मेरा बेटा मेरे से उँची ओहदे पर है। कभी-कभी ऐसे पालन से भी बच्चों, का व्यवहार बदल जाता है। 

क्या उस बच्चे को टीवी की जरूरत नहीं रही होगी! मैं मानता हूँ कि, कुछ पाबंदी होनी चाहिए, लेकिन, इतनी ही नहीं कि, बच्चे कुंठित महसुस करें। अब सोचिए इस अधिकारी के बेटे नें अपने पिता को सबसे पहला गिफ्ट क्या दिया! 

एक मेरे परिवार में 1986 में 10+2 के मध्यप्रदेश बोर्ड का पहला दसवीं का बोर्ड परीक्षा दिलाने वाले एक लड़के को, उस समय पिछले साल नवमी में जनरल प्रमोशन मिला था। लेकिन, इस साल नवमी के 40 प्रतिशत और दसवी के 60 प्रतिशत प्रश्न के साथ उन्हे बोर्ड परीक्षा दिलाने पडे़। एक साथ दिलाते हुए वे पास तो हो गये, लेकिन, नंबर कम रहा। तब भी बोर्ड का रिजल्ट कम होने की वजह से दसवीं पास होकर, वह फीटर में आई. टी. आई. करना चाहता था। एडमिशन भी मिल रहा था, तब उनके दादाजी ( जो एक इमानदार सरकारी कर्मचारी थे ) यह कहते हुए मना किया कि, कहाँ लोहा-लक्कड के साथ काम करोगे ; आगे पढ़ाई करो और बी.डी.ओ. बनो। 

उस समय शायद उस लड़के को यह समझ में नहीं आया कि, यह बीडीओ क्या होता है। हालाँकि उनकी पढ़ाई पूरी नहीं हुई और वह मानता है कि, अच्छा ही हुआ कि, वह बीडीओ नहीं बना। यह बात भी है कि, उनके साथ पढ़ाई कर निकले उनके मित्र आईटीआई कर आज भिलाई स्पात संयंत्र में बड़े पदों पर नौकरी कर रहें हैं, लेकिन, जब उनके बड़े अधिकारी इन्हे सम्मान देते हैं तो उनके मित्र बड़े ही गर्मजोशी से इनसे मिलते हैं। 

जिस तरह से बच्चों को अच्छी शिक्षा की दिशा देते हुए हम एक भटकाव की ओर ले जाते हैं! और अपनी बातें थोपने का प्रयास करते हैं। जाहिर है, शिक्षा तो ऊँची मिल जायेगी, पद बड़ा मिल जायेगा, पर व्यवहार छूट जायेगा ? ।। 


घनश्यामदासवैष्णव बैरागी

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