राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, खादी और राजनीति के बीच बड़ा पुराना रिश्ता है। देश में सरकारें बदलीं, प्रधानमंत्री के चेहरे बदले, मंत्रियों के मंत्रालय बदले मगर एक चीज जो नहीं बदली वो है बापू की तस्वीर। प्रधानमंत्री कार्यालय व मंत्रालयों से लेकर सभी सरकारी दफ्तरों में बापू की तस्वीर अपनी जगह टंगी रही। बापू के आदर्शों की बात हर किसी ने की। उनके बताए मार्ग पर चलने की भी बातें हुर्इं परन्तु कटिबद्धता कहीं से भी देखने को नहीं मिली। बापू और उनके प्रतीकों का इस्तेमाल महज एक सियासी मजबूरी के तौर पर ही नजर आया। जब-जब अपनी शख्सियत को ऊंचाई पर बिठाना होता है तब-तब बापू के किसी ना किसी प्रतीक का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा कई बार फिल्मों के माध्यम से भी किया जा चुका है। सैद्धांतिक रूप से वो भले ही बापू को माने या ना माने भले ही उनकी विचारधारा विपरित हो परन्तु बापू को इस्तेमाल करने का कोई भी मौका वो नहीं चूकते हैं। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के कैलेंडर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीर को लेकर देश के हर कोने में बहस छीड़ी हुई है। सियासी तौर पर सब अपनी-अपनी बातें और अपनी-अपनी दलीलें पेश कर रहे हैं। पक्ष में कहा जा रहा है कि मोदी ने खादीउद्योग को बढ़ावा दिया है। दलील दी जा रही है कि मोदी के ऐसे प्रयासों से खादी की बिक्री में 34 फीसदी का इजाफा हुआ है परन्तु खादी कारीगरों की मालीय हालत जस की तस बनी हुई है। विपक्ष मोदी पर हमलावर है परन्तु इस बात का उसके पास भी कोई जवाब नहीं है कि अपने वक्त में उसने खादी को बढ़ावा देने की क्या कोशिशें कीं? सच्चाई तो यह है कि बापू और खादी महज़ एक राजनीतिक टूल बनकर रह गये हैं।
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